छंदकार एडवोकेट गिरीश श्रीवास्तव के उत्कृष्ट मुक्तक
छंदकार एडवोकेट गिरीश श्रीवास्तव के उत्कृष्ट मुक्तक
मीठे सपनों के सहारे, चल रही है ज़िन्दगी।।
उम्र बढ़ती जा रही है ढ़ल रही है ज़िन्दगी।।
ज़िन्दगी भर हाथ मारी हाथ आया कुछ नहीं-
हाथ रख कर हाथ पर अब मल रही है ज़िन्दगी।।
माना कि मेरी अच्छी तकदीर नहीं है।।
क्यों लोग सराहें मुझे तदबीर नहीं है।।
आंखों में बसा लें मुझे संभव ही नहीं है सब-
ऐसी तो मनोहर मेरी तस्वीर नहीं है।।
तदबीर तो है दोस्तों तकदीर नहीं है।।
चाहा था जैसी वैसी तो तस्वीर नहीं है।।
कोई जवाब है ही नहीं मानों न मानों-
मैं बेनज़ीर हूँ कोई नज़ीर नहीं है।।
फिक्र अपनी करो दलदल निगल न जाये तुम्हें-
हमारे पांव के नीचे ज़मीन पोख़्ता है।।
बहारें लौट के आयेंगी एक दिन फिर से
यकीन मानो मेरा तो यकीन पुख़्ता है।।
हम फ़कीरों का तख़्त ताज़,अलग दुनियाँ से।।
और जीने का है अंदाज,अलग दुनियाँ से।।
मेरे किरदार पे किचड़ उछालने वाले-
हो गये शर्मशार आज, अलग दुनियाँ।।
दिल जलाने के लिए लोग चले आते हैं।।
कुछ भले लोग बुरे लोग चले आते हैं।।
मैंने दावत तो नहीं दी कि आइए लेकिन-
बिन बुलाए ही मेहरबां हैं चले आते है।।
सताने से मुझे कब और कहाँ वो बाज रहते हैं।।
न जाने आज कल रूठे हैं क्यों नाराज रहते हैं।।
मुहब्बत का दीवाना हूँ हमेशा याद आते हैं-
निगाहों में मेरे दिल में मेरे सरताज रहते है।।
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