*ढूँढ़ रहा हूँ मैं......!*

*ढूँढ़ रहा हूँ मैं......!*
ढूँढ़ रहा हूँ मै....आजकल....
बिन मतलब के....
झूठ-साँच बोलने वाले...
नमक-मिर्च लगाकर....!
बातें पारोसने वाले....
अलबेले-वाचाल-बड़बोले...
सच कहूँ तो....!
नाना के सामने नानी के
गुणगान करने वाले....बातूनी...
साथ ही...ढूँढ़ रहा हूँ...
कुछ किस्सा-कहानी...
हरदम कहने वाले... 
अकसर नादानी करने वाले...
निश्छल से मुखौटों को....!
जिनसे मैं पूछ सकूँ....
गिनती वाली इकाई और दहाई,
जिनसे कभी-कभार मँगा सकूँ,
खरबिरई-घरेलू दवाई....!
जो जानता न हो कोई पहाड़ा...पर...
पढ़ाये हमे बात-बात पर पहाड़ा...
जिसको इमला बोलकर लिखा सकूँ,
कठिन शब्दों से परिचय करा सकूँ...
दो छड़ी की मार दे सकूँ....
कभी कान...कभी गाल....!
कर सकूँ मैं लाल.....
जिसको सुना सकूँ परियों की कहानी
जिसे सुनते-सुनते...अनायास ही...
उसे आ जाए नींद सुहानी....
यही नहीं....ढूँढ़ता हूँ मैं....
उद्दण्ड,नटखट मनशोख और,
झट से पेड़ पर चढ़ने वाले.....
बिना कुछ सोचे-समझे....
अपना दोष दूसरे पर मढ़ने वाले....
जिनके प्रश्न....उत्तर से बड़े हों....
समस्या का हल....बेहद सरल हो...
कुछ हास-परिहास से भरे हों....
मतलब.....!
अल्हड़-अलमस्त कुछ आवारा से
कुछ पूछने में...झट से बने बेचारा से
अनगढ़-निश्छल-निर्दोष शिष्यों को..
जिन्हें निश्चय ही मैं....!
बहुत कुछ सिखाऊँगा.....
ज्ञान की पवित्र गंगा में,
डुबकी इन सबकी लगवाऊँगा...
सच मानो मित्रों.....!
इसी बहाने ब्रह्मराक्षस की पीड़ा से
निजात भी मैं पाऊँगा...फिर तो...!
मिलने लगेगी मुझे माला दर माला...
लोग कहने लगेंगे मुझको....
अद्भुत शिल्पी....अद्भुत कुम्हार....!
इन पगलों को गढ़ने वाला....
अद्भुत शिल्पी....अद्भुत कुम्हार....!
इन पगलों को गढ़ने वाला....

रचनाकार.....
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ

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