*फ़र्क बस इतना सा.....!*

*फ़र्क बस इतना सा.....!*
विकास का दौर है मित्रों...!
"सुदामा" समाज में है ही नहीं....
सबके पाँव में जूता-पनहीं है...और...
सबके तन पर अच्छे-नए कपड़े....
काँटे किसी को चुभते ही नहीं....
मतलब साफ है कि कहावत....!
जो ताको काँटा बुऐ ताहि बुए तू फूल    
बस उपदेश और नीति की बात....
पैरों में बिवाई...बीते दिनों की बात...
चाहे कितनी हो गरीबी...
एक तो अब फटती नहीं..
दूजे उपलब्ध है...हर ओर.....
अच्छी-अच्छी दवाई की सौगात....
मतलब...फिर वही बात...कहावत..!
जाके पाँव फटी न बिवाई,
वो क्या जाने पीर पराई....
बस उपदेश और नीति की बात....
रही जमाने में "श्रीकृष्ण" की बात..!
अब नहीं किसी की औकात,
सपने में भी दे सके....
मित्र को महलों की सौगात....
ना ही किसी मित्र में है...!
कुछ दे सकने का जज्बात....
इतना ही नहीं....
आश्चर्य का दौर है मित्रों....
जाने कौन सा स्वाभिमान.....!
"सुदामा" भी पाले पड़ा है.....
जो "श्रीकृष्ण" के यहाँ भी,
यानी अपने बाल-सखा के यहाँ भी...
कभी न जाने की जिद पर अड़ा है....
लगता है उसको ऐसा कि....!
मित्र ही मित्र के साथ नहीं खड़ा है....
और तो औऱ मानता है कि...
प्रगति के पथ में....
वही दुश्मन सबसे बड़ा है....
हर पल लगता है उसे कि....!
दरबार उसका ही,
समाज में सबसे बड़ा है....
इसी कड़ी में मित्रों......
यह भी याद नहीं आता कि....
इस दौर में....मित्र कोई कर्ण सा...!
दुश्मनों के सामने....
कभी कोई हुआ खड़ा है....?
हँस लो या फिर विचार कर लो प्यारे,   
विकास के इस दौर में....!
मित्रता में फ़र्क बस इतना सा पड़ा है
मित्रता में फ़र्क बस इतना सा पड़ा है


रचनाकार.....
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त,प्रयागराज

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