भाषाई दुविधा में भारत: ध्रुवीकरण से बाहर निकलने का समय–प्रोफेसर शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित, कुलपति जेएनयू, दिल्ली
भाषाई दुविधा में भारत: ध्रुवीकरण से बाहर निकलने का समय
–प्रोफेसर शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित, कुलपति जेएनयू, दिल्ली
अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में से किसी एक को चुनने की बहस का आग्रह त्यागने का समय आ गया है। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । (ऋ. 1.164.46) अर्थात एक ही सत्य को विद्वान अलग अलग रूपों में व्यक्त करते हैं।
शैक्षणिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय भाषाओं की स्थिति एक गैरजरूरी बहस में फंसती जा रही है। एक ओर मातृभाषाओं में प्राथमिक शिक्षा देने का पुरजोर आग्रह है, जिसमें विषय बेहतर ग्राहय और अनुकरणीय होते हैं। दूसरी ओर एक समान भारतीय भाषा में विशेषरूप से हिंदी में शिक्षा देने की मांग जोर पकड़ती रहती है। इससे एकरुपता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। किंतु दोनों ही स्थितियां इस प्रकार की बहस में गुत्थमगुत्थी हैं कि इनमें किसी भी प्रकार के सार्थक संवाद के स्थान पर स्थिति ध्रुवीकरण के पेंच में फंसती दिख रही है। इसके परिणामस्वरूप न ही कोई ऐसी क्षेत्रीय भाषा विकसित हो पाई जिसे उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा सके और न ही कोई सर्वमान्य भाषा राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत हो सकी जो वर्तमान शिक्षा व्यस्था के लिए अंग्रेजी का ठोस विकल्प बन सके। इस अनचाही बहस से एक ऐसे ठहराव का निर्माण हुआ है, जिसका परिणाम अपेक्षाओं के विपरीत आ रहा है और जबकि इससे भारत के भाषाई तथा शैक्षिक वातावरण में सुधारों के प्रयासो को मजबूती मिल सकती थी। इस प्रकार की मिथ्या समांतर बहस के बजाय, एक ऐसा मार्ग तलाशने की आवश्यकता है जिससे राष्ट्रीय चर्चा हेतु एक समान भाषाई ढांचे का निर्माण हो सके।
अंग्रेजी एक आवश्यक ज्ञान, किंतु अंतिम साध्य नहीं है:
भारतीय भाषाओं पर केंदित चर्चा अक्सर अंग्रेजी भाषा को लेकर संदेह की परिधि में रह जाती है। यह एक सर्वमान्य धारणा है कि अंग्रेजी भाषा भारतीयों के लिए आज एक वैश्विक संपर्क, प्रतिस्पर्धा एवं व्यवसाय हेतु अत्यावश्यक गुण है। किंतु इसी को हर ज्ञान मापदंड और लक्ष्य मान लेना बड़ी भूल भरा दृष्टिकोण होगा। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, वैश्वीकरण और तीव्र तकनीकी प्रगति के युग में ऐसे उद्योगों का जन्म हो रहा है, जिसमें बहुभाषी योग्यता और विषय विशेषज्ञता अति आवश्यक है। आज सिर्फ अंग्रेजी का ज्ञान पर्याप्त नहीं है। बल्कि तकनीकी, वैज्ञानिक और आर्थिक क्षेत्र में सफलता हेतु विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त तकनीकी शब्दावली की जानकारी भी होनी चाहिए। फ्रांस, चीन, इजरायल और जर्मनी जैसे अनेकों देश अपनी मातृभाषा में ज्ञान और कार्य करके विकसित देशों में अग्रणी है। आज की आवश्यकता "यह या वह" वाली नहीं है बल्कि एक ऐसी समावेशी व्यवस्था की है जो वैश्विक संपर्क और स्वदेशी शसक्तीकरण को एक साथ लेकर चल सके।
आधुनिकीकरण के लिए मध्यमार्ग
पिछली सरकारों ने भाषा के विषय को या तो उपेक्षित रखा अथवा उसे और भी खराब किया, किंतु मोदी सरकार ने आधुनिकीकरण और भाषाई विरासत का अद्भुत संतुलन स्थापित किया है। भारतीय भाषा पुस्तक योजना एक ऐतिहासिक पहल है जिसका उद्देश्य शिक्षा में भारतीय भाषाओं को पुनर्जीवित करना है। 2025- 26 के बजट में इसकी घोषणा की गई है, जिसका मुख्य उद्देश्य सभी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों को सभी भारतीय भाषाओं में डिजिटल पुस्तकें और अध्ययन सामग्री उपलब्ध करवाना है।
यह पहल नई शिक्षा नीति के साथ सामंजस्य स्थापित कर रही है जिसका लक्ष्य शिक्षा को मातृभाषा में शिक्षा से उपलब्ध करवाना है। विभिन्न शोध से यह स्पष्ट हुआ है कि, मातृभाषा में पढ़ने लिखने वाले विद्यार्थियों को ज्ञान ग्रहण करने और उसे समझने में ज्यादा आसानी होती है। लेकिन स्थानीय भाषाओं में गुणवत्तापूर्ण अध्ययन सामग्री उपलब्ध करवाना हमेशा एक चुनौती रही है। भारतीय भाषा पुस्तक योजना के माध्यम से इस कमी को पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है। जिसके अंतर्गत भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची की सभी 22 भाषाओं में अध्ययन पुस्तकें उपलब्ध करवाना है।
इस कार्य के लिए 5100 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं, जिससे कम से कम 15000 पुस्तकें की जा सकती हैं। प्रत्येक पुस्तक को तैयार करने के लिए 1.5 लाख रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी जिससे विश्वविद्यालय और संस्थान उच्च गुणवत्ता की मौलिक अध्ययन सामग्री उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित होंगें। इसे यूजीसी, एआईसीटीसी और भारतीय भाषा समिति के माध्यम से विकेंद्रीकृत तरीके से क्रियान्वित किया जा रहा है। संस्थानों को कृत्रिम बुद्धिमत्ता का प्रयोग करके अनुवाद करने के लिए अनुवादी, उड़ान और भाषिणी जैसे सॉफ्टवेयर की सहायता से अनुवाद कार्य तीव्र और बेहतर बनाने का प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
उच्च गुणवत्ता और मानक सुनिश्चित करने के लिए पुस्तक गुणवत्ता आश्वासन समिति की स्थापना की गई है। इसके साथ ही INFLIBNET और ई - कुंभ का उपयोग करके अकादमिक मानकों को कायम रखते हुए समावेशी स्वरूप में भारत के तेजी से बढ़ते हुए डिजिटल शिक्षा आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं। इस प्रकार की योजनाओं के दीर्घकालीन परिणाम गहरे होते हैं। सर्वप्रथम, इस माध्यम से शिक्षा के औपनिवेशिक प्रभावों को समाप्त कर अंग्रेजी भाषा पर अत्यधिक निर्भरता को कम करते हुए ज्ञान संपदा को सारे समाज को उपलब्ध करवाना है। द्वितीय, इसके माध्यम से भारत के बहुभाषी पारिस्थितिकी को समझते हुए विद्यार्थियों को अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा में प्रवीणता प्राप्त करने में आसानी होगी। तृतीय, भाषा विकास में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रयोग से भारतीय भाषाओं को सिर्फ प्राचीन धरोहर ही नहीं बल्कि आधुनिक तकनीकी को सहजता से अपनाने की सुगमता होने से भविष्य की तकनीकी भी अपनाने की क्षमता भी है।
उज्जवल भविष्य: विभाजन नहीं, संवाद और संश्लेषण
भारतीय भाषाओं को आगे के भविष्य का मार्ग झूठे कथानकों के बजाय, समावेशी दृष्टिकोण अपना कर तय करना होगा। इस बहस को अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में से किसी एक को चुनने का नहीं बनाया जाना चाहिए, न ही इसे कोई एक भाषा थोपे जाने से समाप्त करें। इसके बजाय हमारा लक्ष्य एक बहुभाषी व्यवस्था बनाने पर होना चाहिए जिसमें अंग्रेजी सिर्फ अंतराष्ट्रीय स्तर पर संवाद भाषा के रूप में प्रयुक्त हो। साथ ही भारत की अन्य भाषाओं को आधुनिक, अनुकूल बनाकर मुख्यधारा से जोड़ना चाहिए।
इसके लिए सतत योजनाबद्ध प्रयास, भारतीय भाषाओं में लिखने वालों को प्रोत्साहन और तकनीकी विकास के माध्यम से अनुवाद और पहुंच को आसान बनाया जाय। इस आमूल चूल परिवर्तन के लिए मोदी सरकार ने एक मजबूत नींव रख दी है, अब इसके आगे सभी को विचारधाराओं से ऊपर उठते हुए एक व्यावहारिक भाषाई योजना लागू करने का प्रयास करना चाहिए। आज इस गति को बनाए रखने की चुनौती है। जिससे भारत की भाषाई विविधता कायम रहे और तेजी से उभरते विश्व में प्रासंगिकता भी बनी रहे।
भारत की सफलता कोई एक भाषा के चयन में नहीं बल्कि प्रत्येक भाषा को उसका उचित स्थान देकर उसे शिक्षा और व्यावसायिक क्षेत्र में शामिल करने में है। किसी भी प्रकार के विषैले विवाद का वक्त बीत गया है। यह समय कार्य करने, नई खोज करने और एक साहसी भाषाई नीति विकसित करने का है। जिससे प्रत्येक व्यक्ति को भारत की धार्मिक संस्कृति में विविधताओं का उत्सव मनाने की परंपरा बनी रहे।
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