नंगा

नंगा 

बचपन में जब भी किसी को
देखता था नंगा ,
तो बरबस ही
हंस पड़ता था ।
या फिर भर जाता था
असीमित लज्जा से। 

कौतूहल भी होता था कि 
कोई व्यक्ति सबके सामने ,
या सामने किसी के भी
कैसे हो सकता है नंगा । 

अभी तक मैं 
नहीं हुआ था, 
किसी के भी समक्ष ,
नग्न। 
समझता था तब 
नंगेपन का अर्थ 
होना केवल,
निर्वस्त्र ।


फिर आया उम्र का वह पड़ाव,
जब हुआ
किसी के सामने ,
मैं निर्वस्त्र । 
भर गया था 
बेहद झिझक और 
एक अपरिभाषित 
लज्जा से। 

किन्तु कह सकता हूँ 
निश्चित, 
कि होकर भी निर्वस्त्र ,
लगता था, 
ओढ़े हुए है 
आत्मा अपना वसन ।
और मैं नग्न होकर भी 
नहीं हूँ नग्न। 

फिर जीवन के झंझावातों में 
आये इतने उतार-चढ़ाव
कि नग्न होने की 
बदलती ही गई 
परिभाषा ।


अब मैं अपने को 
पाता हूँ
तमाम जगहों पर 
एकदम नंगा। 
जहाँ रहना चाहिए था मुझे, 
समस्त रुप से 
आच्छादित और सुरक्षित ।

मैं पाता हूँ
कई बार, 
कार्यालय में ,
अपने साथियों के सामने ,
स्वयं को एकदम नग्न। 
जब वे कर रहे होते हैं ,
 मुझसे कुछ आशा ।
  

मैं खुद को पाता हूँ 
नग्न 
अपने दोस्तों के समक्ष,
जब वे 
कुछ मांगते हैं मुझसे 
कुछ चाहते हैं मुझसे। 


कई अवसरों पर पाता हूँ 
ख़ुद को परिवार के 
सामने नग्न, 
जब वे उम्मीद कर 
रहे होते हैं 
मुझसे कुछ सपने 
कुछ वादे। 

हैरत की बात यह है कि 
अब मुझे होती नहीं 
कोई झिझक 
होने में ,
हठात नग्न।

आश्चर्य की बात है कि 
अब मुझे
तनिक भी 
आती नहीं 
लज्जा। 
होने में नग्न, 
कहीं भी, कभी भी। 


इससे भी बड़ी
बात है जादुई ,
कि लोग मुझे 
देख ही नहीं पाते,
नंगा ।

और बात है, 
सबसे बड़े
आश्चर्य और कौतूहल की,
कि मैं बिना निर्वस्त्र हुए 
हो सकता हूँ, 
नग्न। 

मेरी आत्मा का वसन 
हो चुका है 
कब का विदीर्ण, 
ढकने के लिए,
मेरी नग्नता को। 


सन्तोष कुमार झा

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