!!कोई लौटा दे मेरे-बीते हुए दिन!!*--------------गिरीश नंदवंशी

!!कोई लौटा दे मेरे-बीते हुए दिन!!
*--------------गिरीश नंदवंशी 
 
*समाज मे सदियों से चली आ रही परम्पराए, रीति रिवाज एवं त्यौहार सभी का मूल आधार लोगो के मिलने जुलने एवं आपसी मेल - जोल की मजबूत संकल्पना ही तो था! जिसके परिपेक्ष्य में प्रेम, हेत, नेह एवं आपसी सामंजस्य खूब फलता फूलता था!*

अपरंच! मुझे अच्छी तरह से याद आता है कि लोगो में आपसी लगाव की प्रकाष्ठा इतनी सम्पन्न थी कि गांव मोहल्ले में अगर किसी की भी लड़की की शादी होती थी तो लोग बिना निमंत्रण के शादी में चले जाया करते थे!वहां जाकर काम में सहयोग करते, बारातियों को अपने घरों में रुकवाते या जनवासे में बारातियों के लिए खाट बिछौना भेज दिया करते थे और कन्यादान का सगुन देकर बिना भोजन करे चले आते थे!शादी वाले दिन गांव का दूध शहर बिकने नही जाता था यहां तक कि लोग घर मे भी काम मे इस डर से नही लेते थे चुनांचे! कही पड़ोस की शादी में दूध कम नही पड़ जाए!कामकाजी लोग दफ्तरों से छुट्टियां ले लेते थे, विदाई में समूचा गांव इकठ्ठा होता था और हरेक की आँखों मे आंसू होते थे! समूचा माहौल उदास उदास, कायनात तक रो पड़ती थी! मातृ शक्ति द्वारा गाई जाने वाली विवाह गीत,गारी कौन उस घड़ी आंसुओ को रोक पाता था! इसी कड़ी में सामाजिक प्रेम की सशक्त बुनियाद की चर्चा में  प्रेम की एक ओर मीमांसा याद आती है.. मुझे अच्छी तरह याद है कि किसी भी जाति की बारात ब्याहने दूसरे गांव में जाती थी तो वहां ( मंडवा) के नीचे कोई भी महिला घर वालो (घराती) के गांव की होती थी तो उसको कपड़ा ,मिठाई और पैसा देकर अपनेपन का इजहार बारात में आये लोग करते थे .... इस रीति के दौरान भाव विहल बेटियां बिलख पड़ती थी......  लिखते लिखते मेरी आँखों मे भी पानी आ गया है, इसीलिए तो सदियों से कहा जाता रहा है कि बेटियाँ तो सबकी साझी होती है!

उफ़्फ़फ़...... भावनाओ में विषय बहक गया था,  पुनः विषय पर आता हूँ, निश्चित रूप से *शादी ब्याह, उत्सव, त्यौहार समाज में बिगड़े सम्बन्धों को सुधारने के मौके हुआ करते थे* जिनमे वर्षों पुराने मनमुटाव खत्म हो जाया करते थे!लोग इंतजार करते थे कि इस दिवाली के मौके पर मै उसके घर चला जाऊंगा, या अबकी होली पर तपाक से उसके चहरे पर  रंग लगाकर गले लगा लूंगा! सारी नाराजगिया खत्म हो जाती थी और न्योता, बायन ,खुशी, सगुन में शामिल होकर समाज के कार्यो को सफल बना लेते थे और जिंदगी पुनः उसी तरह बसर होती थी जैसे होती आई थी!

वर्तमान में आत्म-प्रतिष्ठा इतनी सिर चढ़ गई है कि लोग अपना पराया रिश्ते नाते सब कुछ भूल गए है! कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जिनसे हम बाते कर रहे है उनके द्वारा बात बात में लगातार आत्मसमान पर चोट करके वे कौन से एंगल से हमे अपने समाज का कह रहे है! सच मानिए साहब! अब अपने ही लोग अपनो से ही परे हो गए है!दुनिया जितनी सोसल मीडिया से पास में आई है उतनी ही दिलो में दूरियां भी बढ़ गई है!सच बताऊँ तो मन ही नही करता कि अपनो से मुलाकातें भी करी जाए!

 खैर.....! आजकल त्यौहार अकेले ही मनाने का मन करता है!सोसल मीडिया ने समाज के मनो में गुस्सा इतना भर दिया है, प्रेम बढ़ाने की कोशिशें भी नाराजगी पर खत्म होती है!अब समाज का कोई मायना ही नही रहा है!वैसे भी शादी अब मैरिज हाल में होती है, जन्मदिन भी होटलों में मनाये जाते हैं, बीमारी में नर्सिंग होम या अस्पताल में खैरियत पूछी जाती है, और अंतिम क्रिया में शामिल होने के लिए लोग सीधे श्मसान घाट पहुँचते हैं! अब हमें स्वीकार करना होगा कि ये समाज बचपन वाला समाज नहीं रहा है! अब घर और समाज के बीच में एक बड़ा फासला हो गया है! जिसको पाटना लगभग नामुमकिन हो गया हैं! सम्प्रति: घरो के नक़्शो से ड्राइंग रूम का कांसेप्ट खत्म सा ही हो गया है! *सोफो की बिक्री में भयंकर गिरावट आई है!* क्योंकि घरो में मेहमान एवं समाज के भाइयों ने आना ही बन्द कर दिया है! महानगरों में तो आजकल ड्राइंग रूम से सोफा हटाकर वहां स्टडी रूम बनाने का रिवाज शुरू हो गया! जो कुछ हद तक ठीक भी है!

मैं बहुत याद करता हूँ वे दिन जब एक - दूसरे के घरों से शाम के वक्त बनने वाले खानों से उठती खुशबू, अड़ोस पड़ोस से कटोरियों में आती - जाती सब्जियां, पकवान , त्योहार की मिठाई अब नही रही है!शाम को चौतरो,सड़क  पर चाय पान की टपरी पर जमने वाली  देर रात तक कि बैठक,  ट्रांजिस्टर पर भूले बिसरे गीत .......

*कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन.....*

सैन हरिकेश शर्मा नन्दवंशी

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