चढ़ता पारा अकुलाते लोग और आग भड़काते उपक्रम*

*चढ़ता पारा अकुलाते लोग और आग भड़काते उपक्रम*

      समय के साथ साथ बदलाव जरूरी है|मगर इतना अधिक भी नहीं कि खुद का जीना दूभर हो जाय|आज कमोवेश यही हालात बने हुए हैं|बदलाव के चक्कर में मानव खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारता चल रहा है|अब जब पैर पर कुल्हाड़ी मारोगे तो कटेगा|कटेगा तो दर्द होगा|आधुनिकता धन पिपासा और सबसे धनी मैं|मेरे ऊपर कोई न हो|जो मैं बना लूँ वो कोई न बना पाये|परिवार ऊपर,गाँव ऊपर,शहर ऊपर,जिला ऊपर, राज्य ऊपर,देश ऊपर मैं ही मैं रहूँ|यह लोगों की धारणा बन गई है|जो जहाँ है वहाँ से सबको नीचे ही देखना चाह रहा है|इसके लिए वह वो हर उपक्रम कर रहा है जिससे  अपने साथ साथ सबको विनाश की तरफ ले जा रहा है|
      आज सूरज आग ऊगल रहा है|ओजोन परत का क्षरण हो रहा है|जिससे धरती का तापमान धीरे धीरे साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है|कारण प्रकृति के साथ बेतहाशा छेड़ छाड़|मिलें तो बंद हो गई| उसकी जगह ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं ने ले लिया|आगे बढ़ने की होड़ में लोग खाढ़ियाँ पाटते जा रहे हैं जंगल काटते जा रहे हैं|जल स्थान कम होते जा रहे हैं|जहाँ से हमें तापमान में नमी मिलती है|जंगल कम होते जा रहे हैं|जिससे हमें आक्सीजन मिलता है|गाड़ियाँ बढ़ती जा रही हैं|जो हमें आलसी और रोगी बना रही हैं|पथरीले मकान बढ़ते जा रहे हैं|जो गर्म होकर वापस प्रकृति को गर्म कर रहे हैं|अधिकाधिक जमीन विकास की भेंट चढ़ती जा रही है|चौंड़ी चौड़ी पथरीली सड़कें प्रकृति को गर्म करने में अहम भूमिका निभा रही हैं|एक मकान रहने के लिए काफी है|मगन लोग दस दस बनाने के चक्कर में प्रकृति की ऐसी तैसी कर रहे हैं|जितने लोग प्रकृति की ऐसी तैसी कर रहे हैं|वही लोग बड़े बड़े मंचों से ग्लोबलवार्मिंग के बारे में चिंता व्यक्त करते हैं और ज्ञान बाँटते फिरते हैं|पेड़ लगाओ पेड़ बचाओ पर लम्बे लम्बे व्याख्यान देते हैं|यहाँ से लेकर अमेरिका जापान जर्मनी तक|जब इनसे कोई पूँछता है कि पेड़ की जगह पर तो आपका बंगला या फार्म हाऊस है तो बगले झाँकने लगते हैं|जब पूँछा जाता है कि पेड़ की जगह पर तो आपकी कतार बद्ध गाडि़यों के चलने के लिए पथरीली सड़कें बन गई हैं तो पेड़ लगायें कहाँ| जल स्रोतों पर तो आपकी विल्डिंगे खड़ी हैं|तो जल स्रोत कहाँ बनायें|तब इनके पास ऊल जलूल जवाब के अलावाँ कुछ नहीं होता|लोगों में पिपासा इतनी बढ़ गई है कि सोंचने समझने की क्षमता ही खतम हो गई है|ऐसा नहीं है कि सोंचते नहीं|सोंचते हैं बस विनास की बात|कितने मकान हो जाय,कितनी गाड़ी हो जाय,चार छ: दस फैक्ट्री हो जाय|समाज में सबसे बड़का वाला हमी दिखें|जहाँ तक नजर जाय  मैं ही मैं दिखूँ|इसी दिखने की लिप्सा में मानव अपनी मौत का सामान  तैयार करता जा रहा है|संकटों का पहाड़ खड़ा करता जा रहा है|और प्रकृति का पहाड़ गिराते भवन पे भवन बनाते जा रहा है|प्रकृति के साथ जितने धन पिपासू हैं खूब खिलवाड़ कर रहे हैं|और मंचों से खोखला ज्ञान बाँट रहे हैं|सोशल मिडिया इलेक्ट्रिक मिडिया प्रिंट मिडिया में इनके भाषण और लम्बे चौड़े लेख सुनने पढ़ने को मिल जाते हैं|लेकिन इनकी जमीनी हकीकत होती बिल्कुल विपरीत है|
       प्रकृति का पारा एक और कारण से बढ़ रहा है|वो है एयरकन्डीशन|धनवान लोग अपनी सुविधानुसार घरों में गाड़ियों में फैक्ट्री आफिसों में सुविधानुसार एयरकंडिशन लगा रखे हैं|उससे कार्बनडाईआक्साईड जो अंदर का होता है वो बाहर प्रकृति में घुलता है|और बाहर की जो प्रकृति में नमी और आक्सीजन है वो अंदर कमरे या गाड़ी में घुलता है|जिससे बाहर तापमान बढ़ रहा हैं|क्योंकि जितना अधिक कार्बनडाईआक्साईड प्रकृति में घुलेगा|तापमान उतना अधिक बढ़ता जायेगा|एक तरफ लोग प्रकृति से नमी और आक्सीजन खींच रहे हैं|जितना आक्सीजन खींच रहे हैं,उसका दोगुना कार्बनडाईआक्साईड प्रकृति में छोड़ रहे हैं|जिससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा दिनो दिन बढ़ता जा रहा है|लोग जान के भी अंजान बनने का अभिनय कर रहे हैं|
       जनसंख्या भी अहम रोल अदा कर रही है|क्योंकि बढ़ती जनसंख्या की जीने खाने रहने की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जल जमीन जंगल का अतिक्रमण होना आवश्यक होता जा रहा है|खेती की जमीने कम होती जा रही हैं|जन की जरूरत की व सुरक्षा रहने खाने की व्यवस्था सरकार को करनी पड़ती है|क्योंकि सरकार जनता की पिता तुल्य होती है|
      जब तक उपरोक्त कथ्यों को रोकने के लिए सही ढंग से इमानदारी पूर्वक दृढ़ता से सरकार और जनता दोनो मिलकर काम नहीं करेगी|तब तक मंचो से सोशल मिडिया आदि से भाषण देना लिखना सब बेमानी है|ग्लोबलवार्मिंग से बचना है तो सबसे पहले लोग अपनी हवस को कम करें|उच्च सपने को सीमित करें|अधिक से अधिक पेड़ बचाने का प्रयास करें और लगायें|जल स्रोत भी बढ़ायें|न की उसको पाटकर उस पर महल खड़ा करें|घर उतने ही बनायें या खरीदें जितने की जरूरत है|जनसंख्या पर भी रोंक शक्ती से होनी चाहिए,बिना भेद भाव के|जनसंख्या कम होगी तो जन जरूरतें भी कम होगी|जब जन जरूरतें कम होगी तो जल जमीन जंगल की कटाई पटाई कम होगी|जब उपरोक्त बातें कम होंगी तो संकट जो बढ़ता जा रहा है वह भी कम होगा|इस तरह की गर्मी से न झूझना पड़ेगा|न मरना ही|बर्तमान बढ़ियाँ होगा साथ में भविष्य भी संवरेगा|आने वाली पीढ़ी गुणगान करेगी|हमारे पूर्वजों ने हमें सुख से जीने के लिए जल जंगल जमीन दी थी|हमारा भी कर्तव्य है कि हम भी आने वाली पीढ़ी को जल जंगल जमीन सौंपें|जिससे उनका भी जीवन सहज सरल हो|उनको आग उगलते सूरज से सामना न करना पड़े|जरा सोंचिए आज हम 50 डिगरी में छटपटा रहे हैं|यही रफ्तार यदि पारा चढ़ने की बनी रही तो,वो कैसे जीयेंगे,जिन्हें आप पैदा कर रहे हैं|
        जिस तरह से आज लोग बढ़ते तापमान से अकुला रहे हैं|भीषण गर्मी से तड़प तड़प के मर हैं,उससे बचने के लिए खोखली बयानबाजी से काम नहीं चलेगा| उसके लिए जमीनी स्तर पर मिलजुलकर काम करना पड़ेगा|आज ग्रामीण क्षेत्र गर्मी की अधिक मार झेल रहा है|क्योंकि वहाँ शहरों जैसी सुविधायें नहीं हैं|शहरियों की करनी का दुष्परिणाम ग्रामीण लोग भुगत रहे हैं|वह कहावत खूब चरितार्थ हो रही है|कि करे कोई भरे कोई|शहर वाले कार्बनडाईआक्साईड प्रकृति में घोल रहे हैं,और ग्रामीण इनकी गलती का परिणाम भुगत रहे हैं|आज जो ग्रामीण क्षेत्रों से खबरें आ रही हैं भयावह हैं|अभी कल ही बिहार के किसी स्कूल से जो दृश्य देखने को आया|वह ऊपर से नीचे तक हिलाकर रख दिया|ऐसी स्थिति आगे न उत्पन्न हो,उस पर काम करना अति आवश्यक है|लेकिन समस्या यहाँ ए बहुत विकट है,यहाँ सब "पर उपदेश  कुशल बहु तेरे" वाले हैं|ज्ञान तो देने वाले बहुत हैं|मगर उस पर काम करने वाले शायद बिल्कुल नहीं हैं|हैं भी तो गिने चुने|जो कि ऊँट के मुह में जीरा के समान  साबित हो रहे हैं|लोग दूसरे से उम्मीद कर रहे हैं|खुद नहीं कर रहे|इसलिए ही भयावह स्थिति बनती जा रही है|
पं.जमदग्निपुरी

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