भगवत गीता हिंदुओं का सर्वमान्य ग्रंथ – स्वामी नारायणानंद तीर्थ

भगवत गीता हिंदुओं का सर्वमान्य ग्रंथ – स्वामी नारायणानंद तीर्थ
मुंबई। श्री नारायण सेवा समिति, मुंबई द्वारा कांदिवली पूर्व स्थित डॉ बाबासाहेब आंबेडकर मैदान, लोखंडवाला कॉम्प्लेक्स, कांदिवली पूर्व मुंबई में 27 दिसंबर 2023 से 2 जनवरी 2024 तक 7 दिवसीय श्रीमद् भागवत ज्ञानयज्ञ सप्ताह श्री काशी धर्म पीठाधीश्वर अनंतश्री विभूषित शंकाराचार्य स्वामी नारायणानंद तीर्थ के सानिध्य में आयोजित किया गया है। कार्यक्रम हर दिन सायं 3 बजे से 7 बजे के बीच संपन्न होगा। 
आज कार्यक्रम के दूसरे दिन भारी संख्या में उपस्थित भक्तों को संबोधित करते हुए स्वामी जी ने कहा कि श्री गीता उपनिषदों का सार है। हिन्दुओं का धर्मग्रंथ है चार वेद, वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों का सार है गीता। गीता सभी ग्रंथों का सार यानी निचोड़ है। इसीलिए श्री गीता हिन्दुओं का सर्वमान्य ग्रंथ है।  महाभारत के 18 अध्यायों में से 1 भीष्म पर्व का हिस्सा है भगवत गीता। महाभारत युद्ध के समय रणभूमि में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया था वह गीता में बताया गया है। गीता में ऐसी बहुत सी बातें हैं जो मनुष्य को जीवन की कई कठिनाइयों को आसान बनाती है। इतना ही नहीं गीता पढ़ने पर मनुष्य को बहुत सी नई जानकारियां भी मिलती है।
 गीता के पहले अध्याय का नाम अर्जुन विषाद योग है। इस अध्याय में कुरुक्षेत्र के मैदान में उपस्थित बंधुओं और संबंधियों को सामने देखकर अर्जुन के मन में उठे विषाद और मनःस्थिति का वर्णन किया गया है, जिसे संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं। अर्जुनविषादयोग नाम से है। इस अध्याय में दोनों सेनाओं के प्रधान-प्रधान शूरवीरों की गणना, सामर्थ्य और शंख ध्वनि का कथन, अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग और अपने ही बंधु-बांधवों को सामने खड़ा देखकर मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन है। 
स्वामी जी ने कहा कि भक्ति के लिए निष्ठा की आवश्यकता होती है। जिसमें ईश्वर के प्रति निष्ठा होती है वह जीवन में सफल होता है। भक्तों को भी सत्संग में उपस्थित रहकर इसका लाभ उठाना चाहिए। स्वामी जी ने कहा कि जिस व्यक्ति को शास्त्र का सही ज्ञान नहीं होता उसे उसके बारे में चर्चा करना पाप है। 
भक्ति अपने इष्ट के प्रति ऐसा समर्पण भाव है, जो हमारे मन में यह विश्वास जगाता है कि उसकी शरण में हम सदा शांति, सुचित्त, सुरक्षित व सदाचारी रहेंगे। साथ ही, संतुष्टि, तृप्ति, तटस्थता, आध्यात्मिक चेतना और अनंत सद्विचार के सुवासित पुष्प पर हम बरसेंगे और उसकी कृपा की निर्मल फुहार के तले हम एक-चित्त होकर यह बहुमूल्य जीवन जिएंगे।
एक दृष्टि से भक्ति का यह भाव और विश्वास वैयक्तिक है, अपना-अपना अलग-अलग। सामान्यत: भक्ति के उपक्रम हैं पूजा, जप, ध्यान, क‍ीर्तन, निरंतर स्मरण व चिंतन, जो अपने मन में पवित्रता का भाव जगाते हैं और दुष्कर्मों से बचाते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल परमात्मा के पूजन, ध्यान, स्मरण में लगे रहना ही भक्त होने का लक्षण नहीं है। भक्त वह है, जो द्वेषरहित हो, दयालु हो, सुख-दुख में अविचलित रहे, बाहर-भीतर से शुद्ध, सर्वारंभ परित्यागी हो, चिंता व शोक से मुक्त हो, कामनारहित हो, शत्रु-मित्र, मान-अपमान तथा स्तुति-निंदा और सफलता-असफलता में समभाव रखने वाला हो, मननशील हो और हर परिस्थिति में खुश रहने का स्वभाव बनाए रखे। उससे न किसी को कोई कष्ट या असुविधा हो और वह किसी से असुविधा या उद्वेग का अनुभव करे।स्वामी जी ने कहा कि निस्वार्थ भाव से ईश्वर की भक्ति करना ही सच्ची भक्ति है और यही हमारा परम कर्तव्य है।

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