फ़रक़ नहीं पड़ता है.....!*तू लाडो,गुड़िया,पारो..या फिर...हो पापा की परी सुनहरी...!

*फ़रक़ नहीं पड़ता है.....!*

तू लाडो,गुड़िया,पारो..या फिर...
हो पापा की परी सुनहरी...!
कहता तुझसे मैं कुछ बातें,
सब सच्ची-सच्ची,खरी-खरी..
फ़रक़ नहीं पड़ता है मुझ पर
ऐसी कल्पित उड़ाने भरने से...
कारण बस तुम इतना जानो...!
आनन्द मिलेगा मुझको जी भर,
जीवन तेरा सँवरने से...
मैंने कब रोका तुमको...
गुड्डडों-गुब्बारों संग रहने से,
कब पाबंदी डाली तुम पर...!
काजल-टीका करने से...
ज़िद भी कुछ तेरी मानी मैंने
पर...हरदम रोका तुमको...!
खुली चौकड़ी भरने से....
कारण बस तुम इतना जानो...!
आनन्द मिलेगा मुझको जी भर,
जीवन तेरा सँवरने से...
घर-आँगन की तुम गौरैया,
नादानी में ना बन जाओ अय्या...
कुछ अच्छा सीखो...अच्छा करके
खेओ तुम अपनी जीवन नैय्या..
बस इस कारण ही...!
बदली मैंने तेरी दिनचर्या...
सम्भव है...कुछ ज्यादा ही...
दृढ़ रहा हो मेरा रवैया...पर...
इतना सच तो जानो तुम...!
फ़रक़ नहीं पड़ता है मुझ पर,
किसी के कुछ भी कहने से....
कारण बस तुम इतना जानो...!
आनन्द मिलेगा मुझको जी भर,
जीवन तेरा सँवरने से....
संग मेरे रहने से...सम्भव है...!
कुछ तू भी उदास रहे,
प्रतिबंधित सी तेरी हास रहे...या..
सखियों में तू....हरपल...!
विषय..हास-परिहास रहे.…
सम्भव है..बातें हरदम,
तुझको चुभती हो मेरी....
पर यह सच मानो तुम...!
फ़रक़ नहीं पड़ता है मुझ पर,
तेरे झर-झर आंसू झरने से...
कारण बस तुम इतना जानो....!
आनन्द मिलेगा मुझको जी भर,
जीवन तेरा सँवरने से....
जब तक तुम समझोगे मुझको
देर बहुत हो चुकी होगी,
शायद तेरे अरमानों की...!
अर्थी कहीं सजी होगी....
पहचानो तुम संबंधों को,
यह भी जान लो अच्छे से
बँधा हूँ मैं भी...कसकर...!
जग के जाहिर अनुबन्धों से
इसी बहाने तुम भी...
परिचित हो जाओ...
जीवन के तटबन्धों से....
धरम यही तो मेरा है,
सिखलाऊँ तुमको यह सब मन से
इसलिए...सच तुम यह भी मानो..
फ़रक़ नहीं पड़ता है मुझ पर,
तेरे टीवी वाले सपनों से...
कारण बस तुम इतना जानो...!
आनन्द मिलेगा मुझको जी भर,
जीवन तेरा सँवरने से....!!

रचनाकार...
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद..कासगंज

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