भारत की शान तिरंगा के आयात होने की खबर को स्पष्ट करे सरकार– मंगलेश्वर (मुन्ना )त्रिपाठी

भारत की शान तिरंगा के आयात होने की खबर को स्पष्ट करे सरकार
– मंगलेश्वर (मुन्ना )त्रिपाठी
क्या अब भारत की शान ‘तिरंगा’ विदेश से आयात किया जायेगा ? ऐसे समाचार यहाँ- वहां छप रहे हैं, यदि ये समाचार सही है तो यह एक गंभीर विषय है | जिस देश से आयात होने की चर्चा है वो चीन है, तो यह और भी गंभीर बात है, भारतीय इतिहास नहीं भूले हैं  | राष्ट्रीय ध्वज एक प्रतीक भर नहीं होता। यह एक देश की संप्रभुता और उसके अस्तित्व की पहचान होता है। देश की सरकार को इस विषय को फ़ौरन स्पष्ट करना चाहिए |देश के हर नागरिक को यह  मालूम होना चाहिए कि ‘तिरंगा’ आजादी की लड़ाई के दौरान विकसित हुआ और औपचारिक रूप से इसे २२  जुलाई, १९४७ को संविधान सभा ने अपनाया। आज़ादी की लड़ाई के समय तिरंगे के बीच में चरखा था। तब चरखा और खादी हमारी आजादी की लड़़ाई के दो बुनियादी सिद्धांत हुआ करते थे। तिरंगे के इस ऐतिहासिक मूल को देखते हुए हाल-हाल तक यह आधिकारिक झंडे खादी के ही बनते रहे। झंडे के आकार-प्रकार, कताई- सिलाई सबकुछ भारतीय मानक ब्यूरो तय करता है।
देश के नागरिकों को यह भी मालूम होना चाहिए कि  तिरंगे झंडे उत्तरी कर्नाटक में तैयार होते हैं। बगलकोट के तुलसीगेरी गांव में हाथ से चलने वाले चरखों पर खादी काती जाती है और इसी का इस्तेमाल हुबली का खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ (केकेजीएसएस) तिरंगा बनाने में करता है। यह ध्वज उत्पादन केन्द्र विभिन्न आकारों में झंडे की आपूर्ति करता है जो सबसे बड़े २१  x १४ फुट से लेकर सबसे छोटे x४  इंच तक के होते हैं। खादी ग्रामोद्योग संयुक्त संघ की स्थापना नवंबर, १९५७ में हुई और राष्ट्रीय ध्वज निर्माण इकाई २००४  में स्थापित की गई। तभी से आधिकारिक तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले झंडे बीआईएस मानकों के आधार पर बनाए जाते हैं। तिरंगा’कई मायनों में स्वतंत्र भारत की भावना को परिलक्षित करता है। झंडा बनाने का काम मोटे तौर पर महिलाएं ही करती हैं। जिन्हें भारत की सतरंगी सामाजिक बुनावट पर गर्व है, ये महिलाएं देश के सभी समुदायों से आती हैं अर्थात मुस्लिम, जैन, ईसाई, दलित, आदिवासी, लिंगायत, बौद्ध और हिन्दू सभी इनमें शामिल हैं |
यह भी सत्य है की  तिरंगा झंडा बनाने वाले इन लोगों की हालत देश के सबसे पीड़ित, सबसे वंचितों से भी बदतर है। रोजाना आठ से दस घंटे काम करके वे लगभग डेढ़ सौ रुपये कमा पाते हैं। जो दशकों से देश के लिए झंडे बना रहे हैं, इनकी कमाई आम तौर पर एक महीने में तीन हजार से भी कम है। न कोई सालाना वेतन वृद्धि, न कोई पेंशन। यह विभेद दूर करना सरकार की प्राथमिकता  होनी चाहिए थी | आज तिरंगा निर्माण और खादी ग्रामोद्योग दोनों संकट में है |
कहने को देश में हर साल में ३-४ करोड़ रुपये के झंडे बनते हैं।’ झंडा बनाने वालों को उम्मीद थी कि आजादी का ७५ वां साल उनके लिए ज्यादा काम, बेहतर कमाई और बेहतर भविष्य की उम्मीद लेकर आएगा। लेकिन ऐसा हो न सका अब  तो मानक ब्यूरो ने सरकारी कार्यालयों में फहराए जाने वाले झंडों के लिए गैर-खादी झंडों की इजाजत दे दी है। अब पॉलिएस्टर के भी झंडे बन सकेंगे और यह भी जरूरी नहीं किये लाइसेंस प्राप्त झंडा बनाने वाले केन्द्र में ही बनें। ऐसी खबरें आई हैं कि चीन से भी झंडे मंगाने की योजना है।
पिछली दो शताब्दियों के दौरान जब एक के बाद एक आधुनिक देशों का जन्म हुआ, हर देश ने अपने अस्ततित्व के प्रतीक के तौर पर अलग-अलग अपने झंडे को अपना लिया। ‘तिरंगा’ हमारा सबसे पवित्र प्रतीक है। बड़े पैमाने पर बांटने के लिए झंडे आयात करने के सरकार के फैसले[?] ने देश के भीतर खादी के झंडे बनाने वालों के लिए गलत संदेश दिया है | क्या सरकार यह चाहती है कि भारत के लोग खादी को भूल जाएं या यह भी भूल जाएं कि झंडा आजादी के आंदोलन से पैदा हुआ है? सरकार में कोई भी रहे, तिरंगा अमर है और अमर रहना चाहिए |

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