ना इंसान बच रहा था..... ना जान बच रही थी ना जहान बच रहा था पैसे देने पर भी ना इंसान बच रहा था ।
ना इंसान बच रहा था.....
ना जान बच रही थी
ना जहान बच रहा था
पैसे देने पर भी
ना इंसान बच रहा था ।
जान बचाने के लिए
बिक रहे थे मंगलसूत्र
फ़िर भी देखो दोस्तों
ना सुहाग बच रहा था ।
गिर रहे थे लोग दर दर
कोरोना की वजह से
खोई थी तब इंसानियत
ना इंसान बच रहा था ।
देखो चार कंधे पाने को
तरस रही थी तब लाशें
ना बेटा दे रहा था
ना समाज दे रहा था ।
दर दर भटक रहें थे
तीमार दार तब
ना आक्सीजन मिल रहा था
ना अस्पताल मिल रहा था ।
लूट ही लूट मची थी हर जगह
कहीं एम्बुलेंस लूट रहा था
कहीं अस्पताल लूट रहा था
तब देखो दोस्तों ....
इंसान को इंसान लूट रहा था ।
राज्य और केन्द्र बैठे थे
न्याय के चौखट पर
देश के न्यायालय से
तब न्याय मिल रहा था ।
दर दर की ठोकरें
खा रही थी सरकारें
फ़िर भी अस्पतालों में
बस मौत बँट रहा था।
डाक्टर के आंसू गिरते थे
सरकार के आगे
ना आक्सीजन मिल रहा था
ना जान बच रहा था ।
हेल्प लाईन जारी थी
तीमार दार के लिये
ना काॅल मिल रहा था
ना ईलाज मिल रहा था ।
दर दर की ठोकरें
खाने के बाद भी
ना इंसानियत बची थी
ना इंसान बच रहा था ।
हे कविराज विकाश तू यहाँ
कितना भी आंसू बहा ले
यहाँ तब मौत बंट रहा था
और श्मशान बिक रहा था ।
युवा कवि विकाश द्विवेदी
8882257111
अप्रकाशित मौलिक रचना
सर्वाधिकार सुरक्षित
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