अनमोल धरोहर –डॉ मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा, वरिष्ठ साहित्यकार मन के आँगन में आज फिर बेचैनी की धूप उतरी है, कुछ गाँठें हैं— जो प्रश्न हैं, जो सुलझाए नहीं सुलझ रहे, सोचती हूं कहां जाऊं और जवाब पाऊं। बात कहने को शब्द तो बहुत हैं, पर भरोसे की धरती हर किसी के पाँव तले नहीं होती। ज़ुबान से निकले वाक्य काग़ज़ बन जाते हैं, और दुनिया उनका अख़बार। तभी स्मृति की खिड़की से माँ की हथेली झाँकती है, जहाँ हर डर कुनकुनी गोद में पिघल जाया करता था। बाबा की चुप्पी याद आती है, जो बोलती कम थी पर ढाल बनकर खड़ी रहती थी। आज उनकी तस्वीरें दीवार पर नहीं, मेरे भीतर टँगी है। उसी से बातें करती हूँ— और जवाब की उम्मीद सपनों पर छोड़ देती हूँ। बचपन में उनकी सीख मुझे रस्सी लगती थी, आज समझ आती है, वही रस्सी मुझे हर सही दिशा से बाँधे रखती थी। अब मैं घर की धुरी हूँ— सबके सुख-दुख मेरे चारों ओर घूमते हैं। लेकिन कभी-कभी यह धुरी भी किसी एक हथेली का सहारा ढूँढती है। काश, फिर से सिर रख पाती उस कंधे पर, जहाँ रोना कमजोरी नहीं था, जहाँ आँसू अनमोल धरोहर समझे जाते थे। माता-पिता— वही अंतिम पता होते हैं जहाँ आत्मा बेनकाब हो...