आओ, अब जड़ों की तरफ लौट चलें–डॉ मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा

आओ, अब जड़ों की तरफ लौट चलें
–डॉ मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा

आज का सिनेमा अब केवल मनोरंजन नहीं रहा,
वह हमारे विचारों को गढ़ रहा है,
हमारी भाषा बदल रहा है,
हमारे रिश्तों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा हैं।

पर्दे पर दिखाई जाने वाली रील लाइफ को
हमने रियल लाइफ समझना शुरू कर दिया है।

फिल्मों में दिखाया जाता है
नायक पहली नज़र में प्रेम में पड़ गया,
लड़की मां-बाप, घर-परिवार सब छोड़कर भाग गई,
मां-बाप खलनायक बना दिए गए,
और अंत में सब कुछ “हैप्पी एंडिंग”।

लेकिन प्रश्न यह है
क्या वास्तविक जीवन इतना सरल होता है?
क्या ज़िंदगी दो-ढाई घंटे की फिल्म है?

हाल ही में हमारी संस्था के पास
दो-तीन ऐसे घटनाक्रम आए
जहाँ लड़कियाँ
घर से भागकर शादी कर चुकी थीं।

मां-बाप परेशान  दर-दर भटक रहे हैं
बेटी को वापस लाएँ तो कैसे?
समाज को उत्तर दें तो कैसे?
और बेटी को समझाएँ तो कैसे?

एक बेटी को घर वापस लाना
सिर्फ कानूनी प्रक्रिया नहीं
यह माता-पिता की आत्मा को छलनी कर देने वाला संघर्ष है।

तब मन से प्रश्न उठता है,
क्या हम कहीं बहुत गलत दिशा में तो नहीं जा रहे?
हमारी मर्यादाएँ, संस्कार और परिवार व्यवस्था
क्या धीरे-धीरे टूटती जा रही हैं?

मैं पूरे विश्वास से कहना चाहती हूँ
जो सचमुच प्रेम करता है,
वह चुपचाप भगा नहीं ले जाता।
सच्चा प्रेम साहस देता है,
परिवार से बात करने का,
ज़िम्मेदारी उठाने का,
सम्मान के साथ रिश्ता निभाने का।

भाग जाना प्रेम नहीं,
वह भावनाओं का उफान है,
क्षणिक आकर्षण है—
जिसे सिनेमा ने “हीरोइज़्म” बना दिया है।

आज के सिनेमा और वेब सीरीज़ में
जो खुलकर परोसा जा रहा है
वह बेहद चिंताजनक है।

गालियाँ,
मारधाड़,
खून-खराबा,
बदला,
अपराध और हिंसा
इन्हें पर्दे पर “स्टाइल” बना दिया गया है।

जब पर्दे पर नायक गाली देता है
और दर्शक तालियाँ बजाते हैं,
तो वही भाषा
हमारे युवाओं की जुबान बन जाती है।

और तब हम हैरान होते हैं कि,
युवाओं में अपराध क्यों बढ़ रहे हैं?
असंवेदनशीलता क्यों आ रही है?

जो देखा जाता है, वही दोहराया जाता है।

आज के स्थापित नायक-नायिकाएँ
सिर्फ कलाकार नहीं है
वे रोल मॉडल हैं।

जिसे देश पूजता है,
जिसकी एक झलक पर भीड़ उमड़ती है,
क्या उसका समाज के प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनता?

क्या वे निर्देशक से यह नहीं कह सकते कि
“मैं गाली नहीं बोलूँगा,
मैं अनावश्यक हिंसा नहीं दिखाऊँगा”?

अगर वे चाहें तो
पूरी इंडस्ट्री की दिशा बदल सकती है।

प्रतिष्ठा केवल प्रसिद्ध होने से नहीं आती,
प्रतिष्ठा जिम्मेदारी निभाने से आती है।

आज ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर
लगभग कोई प्रभावी सेंसर नहीं है।

अपरिपक्व उम्र के बच्चे
वह सब देख रहे हैं
जो पहले वयस्कों तक सीमित था।

रिश्तों का मज़ाक,
संयम का मज़ाक,
विवाह का मज़ाक,
और नैतिकता का मज़ाक।

जिस उम्र में चरित्र बनना चाहिए,
उस उम्र में चरित्र टूट रहा है।

इसलिए मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहती हूँ,
ओटीटी पर सेंसर बेहद आवश्यक है।
यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं,
भविष्य की पीढ़ी की सुरक्षा का प्रश्न है।

लेकिन सखियों ,
यह कहना भी अधूरा सत्य होगा कि
सारी ज़िम्मेदारी केवल सिनेमा या ओटीटी की है।

आज हमारा सामाजिक और पारिवारिक ढांचा भी तेजी से बदल रहा है।
संयुक्त परिवार टूटकर
एकल परिवार बनते जा रहे हैं।

जहाँ पहले
दादा-दादी की कहानियाँ थीं,
मामा–मौसी का अपनापन था,
चाचा–ताऊ का संरक्षण था
आज वहाँ
अकेलापन है,
मोबाइल है
और स्क्रीन है।

जब घर के भीतर
संवाद कम हो जाता है,
समय कम हो जाता है,
और अपनापन कम महसूस होता है
तो बच्चे बाहर की दुनिया में
सहारा ढूँढने लगते हैं।

और वही बाहर की दुनिया
फिल्मों, वेब सीरीज़ और ,सोशल मीडिया से
उन्हें अपने रंग में रंग लेती है।

याद रखिए
जिस घर में प्यार भरपूर होता है,
वहाँ बच्चे भटकते कम हैं।

अगर बच्चे को
घर में सुना जाए,
समझा जाए,
अपनाया जाए
तो फिल्मी दुनिया का असर
उस पर इतना घातक नहीं होता।

इसलिए ज़रूरत है
केवल पर्दे को दोष देने की नहीं,
बल्कि घर के भीतर
रिश्तों को मज़बूत करने की भी।

भारत कोई साधारण भूमि नहीं है
यह सनातन भूमि है।
यहाँ संस्कार, संयम और मर्यादा की जड़ें हैं, 
हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति, हमारी विरासत महान हैं ।

अगर हमने समय रहते चेतना नहीं दिखाई,
तो हमारी संस्कृति किस दिशा में जाएगी
हम शायद तब भी नहीं समझ पाएँगे
जब बहुत देर हो चुकी होगी।

आज बच्चों को सिर्फ डाँट नहीं,
संवाद चाहिए।

मां-बाप अगर बच्चों के मित्र बन जाएँ,
तो बच्चा कोई बात छुपाएगा नहीं।

बच्चों को यह समझाना होगा कि
पिक्चर पिक्चर होती है,
जीवन नहीं।

आज ज़रूरत है
बच्चों के साथ बैठकर देखने की
वे क्या देख रहे हैं।

उनसे बात करने की,
उनके प्रश्नों का उत्तर देने की।

सिनेमा को जीवन मत बनने दीजिए
उसे बस सिनेमा ही रहने दीजिए।

क्योंकि
अगर आज हमने बच्चों का हाथ नहीं थामा,
तो कल समाज
हमारे हाथ से फिसल जाएगा।

आईए अपनी जड़ो की और लौटे ,
सयुक्त परिवार की परंपरा को अपनाये, अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करें। 

क्या आप लोग मेरी बातों से सहमत हो? आपकी क्या राय है जरूर बताएं।

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