दिनकर जनशक्ति पर अपार भरोसा करने वाले कवि हैं ~ प्रो. वशिष्ठ द्विवेदी 'अनूप'
दिनकर जनशक्ति पर अपार भरोसा करने वाले कवि हैं ~ प्रो. वशिष्ठ द्विवेदी 'अनूप'
वाराणसी। हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं डॉ. अलका पाण्डेय मेमोरियल फाउंडेशन, वाराणसी के संयुक्त तत्वावधान में ‘राष्ट्रकवि दिनकर जयंती’ के उपलक्ष्य में परिचर्चा सह काव्य पाठ सहित डॉ. अलका पाण्डेय स्मृति छात्रवृत्ति समारोह का आयोजन मंगलवार को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सभागार, बीएचयू में आयोजित किया गया।
इस कार्यक्रम के संरक्षक और अध्यक्षता कर रहे हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. वशिष्ठ अनूप ने बताया कि यह आयोजन दिनकर जी की स्मृति को नमन करने के साथ साथ डॉ. अलका पाण्डेय हिन्दी विभाग की शोध छात्रा रही। उन्होंने कबीर पर बहुत अच्छा काम किया था। उनकी स्मृति को बनाए रखने हेतु, उनके प्रेरक विचार की चर्चा करने के लिए, उनके सृजनशील व्यक्तित्व से रूबरू कराने के लिए भी यह आयोजन किया गया। परास्नातक में जो छात्र और छात्रा सबसे उच्चतम अंक प्राप्त करेंगे उन्हें 11000 - 11000 हज़ार रुपए की राशि ससम्मान प्रदान की जाएगी। छात्रों के आकाश सिंह और छात्राओं में प्रिया निराला को सम्मान पत्र सहित यह राशि विद्वतजनों द्वारा प्रदान की गई। दिनकर एक ऐसे कवि हैं जो अपने युगधर्म का निर्वाह करते हैं। एक बड़े आसान पर पहुंच जाने के बाद भी पलट पलट कर गांव को देखते हैं। वे राजसभा के सदस्य और कुलपति बनते हैं। दिनकर जनशक्ति पर अपार भरोसा करने वाले कवि के रूप में दिखते हैं। ‘विपथगा’ उनकी कालजयी कविता है। उन्होंने समय समय पर अपनी युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन किया। वे कविता को ज़मीन पर उतारने की कोशिश करते हैं। वे मिट्टी के कवि हैं। अलकापुरी की कोई अप्सरा यदि उन्हें मुग्ध करती हैं तो वे उसे धरती पर उतार लाते हैं ख़ुद अलकापुरी नहीं पहुंच जाते। दिनकर मंजकर प्रेम की व्याख्या करते हैं।
‘इस मन्दिर का द्वार,
सदा अंत:पुर से खुलता है।’ रश्मिरथी में मित्रता के जिस मूल्य को रेखांकित किया है वह शाश्वत है। जब देश की बात आई उन्होंने परशुराम की प्रतीक्षा लिखी।
फाउंडेशन के संयोजक सुशील पाण्डेय ने हिन्दी विभाग के प्रति आभार व्यक्त करते हुए बताया कि यह सम्मान राशि हर साल प्रदान की जाएगी। इस सुन्दर आयोजन हेतु मैं अध्यक्ष सर के प्रति आभार ज्ञापित करता हूँ।
अलका के भाई मंजीत पाण्डेय ने बताया कि अलका ने बहुत ही लोकतांत्रिक विषय चुना था अपने शोध हेतु। उनकी वृत्ति गहन चिन्तन मनन की थी।
पद्मश्री राजेश्वरचार्य कहते हैं कि मैं आप सब में सबसे पुराना विद्यार्थी हूँ, आप मेरा नवीतम संस्करण हैं। आप सभी मुझे आदरणीय बनाते हैं। संगीत वाला व्यक्ति हूँ, आलाप करता हूँ कभी कभी प्रलाप भी कर लेता हूँ। प्रसाद लयबद्ध कविता सुनाते हैं। रीति साहित्य के उद्भट विद्वान ईश्वरी प्रसाद थे, वे कहते हैं कि मुझे हिंदी में संज्ञा के लिए नहीं प्रज्ञा के लिए काम करना है। मैं अपने को प्राचीनतम नौजवान मानता हूँ। उस देश का भविष्य खोटा होता है जहाँ बड़ों की दृष्टि में नौजवान छोटा होता है। जो नृत्य को चुनौती देता है वह सच्चा कवि होता है, दिनकर ऐसे ही कवि हैं।
अकेले रहने पे कौन बाधा देगा
छोटी सी झोली में कौन ज्यादा देगा
सुनो मौत देती हो तुम सबको कांधा
तुम्हें कौन कांधा देगा।
ले लो अपनी जन्नत, हमें जहन्नुम दे दो
शर्त बस इतनी है कि मुझे तरन्नुम दे दो।
रचते रहना, रचने वाला ही आगे बढ़ता है।
महत्वपूर्ण कवि एवं प्रखर आलोचक प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं हमने ज्ञान की बातें तो बहुत सुनी अब अनुभव की बात की जाए। दिनकर बड़े कवि हैं, बड़े विचारक थे ही इसके साथ ही कविता के प्रचार प्रसार और सैद्धांतिक विवेचन पर भी बात की। ‘भविष्य की कविता और कविता का भविष्य’ जैसा निबन्ध लिखते हैं जिसमें वे कहते हैं कि भावी कविता जूही के झाड़ झंकार से नहीं बल्कि बुद्ध की करुणा की भूमि से ऊपजेगी। संवेदना तो रहेगी साथ साथ ज्ञान भी रहेगा। दिनकर कविता में ज्ञान प्रवणता की बात करते हैं। संवेदना के साहचर्य के साथ आया ज्ञान अमरत्व की ओर जाता है। कवि नए से नए ऋषियों का अनुसंधान करता है। प्रतिभा हम सबके पास होती है, सुनकर, यत्न करके आप अपने प्रतिभा को निखार सकते हैं । दिनकर का काव्य बहुआयामी है। दिनकर में कोमलता भी है तो ओज भी है। जो रसवंती में है वही हुंकार में नहीं है, जो रश्मिरथी में है वही उर्वशी में नहीं है। भाषा को अपनी परम्परा के मांजिये। दिनकर कहते हैं कि ज्ञान आप किसी की भाषा में अर्जित कर सकते हैं लेकिन सर्जना की भाषा, कविता की भाषा तो अपनी मातृभाषा ही होगी। दिनकर ने अपने काव्य का श्रेष्ठ महाभारत से लिए है क्या कारण है कि रामायण से नहीं लिया। दिनकर पाठ्यक्रम के लिए नहीं पाठक के मन के लिए लिखते हैं।
डॉ. अशोक कुमार ज्योति कहते हैं हुंकार की ध्वनि देने वाला यह कवि प्रेम तक पहुंचता है। जो कविताएं आज विद्यार्थियों ने प्रस्तुत की उनमें वीर और शृंगार दोनों भाव की कविताएं थी। युग परिवर्तन का दायित्व कवियों के हाथ में होता है। वह संस्कृति के चार अध्याय में लिखते हैं हर महान पुरुष अपने समय का परिणाम होता है। 23 सितम्बर 1908 को दिनकर का जन्म होता है। उसके कुछ ही समय बाद भगत सिंह का जन्म होता है।
रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उसको स्वर्ग धीर,
पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर।
प्रेम के बिना कुछ भी मुकम्मल नहीं है। देश प्रेम, राष्ट्र प्रेम
पहली पुस्तक विजय संदेश पुस्तक लिखते हैं, बारदोली आंदोलन पर लिखते हैं, गांधी जी के पहुंचने के पहले। दिनकर को देखने हेतु कोणार्क दृष्टि चाहिए। उनके काव्य में राष्ट्र प्रेम है, किसानों की चिन्ता है, निर्वासन स्त्रियों की चिन्ता है।
श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं,
युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते है,
पापी महलों का अहंकार देता तब मुझको आमंत्रण।
झन झन झन झन झन झनन झनन। यह दिनकर की कविता की झंकृति है।
“मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी हो जाता है।”
दिनकर जी ने रवींद्रनाथ टैगोर के विषय में कहा है उनके यहाँ राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता का सम्मिलन है।
हमें दिनकर के साथ साथ जयप्रकाश नारायण को भी याद कर लेना चाहिए। आपातकाल में जब लोकतन्त्र की हत्या हो रही थी तब वे उठ खड़े हुए थे।
‘भारत नहीं स्थान का वाचक, भारत जीवित भास्वर है।’
डॉ. प्रभात कुमार मिश्र ने बताया कि कुछ लोगों के साथ होने से ही हम ज्ञान सम्पन्न हो सकते हैं। कविता के न जाने कितने आंदोलन दिनकर के समय में आए और गए लेकिन दिनकर की कविताएं समय में देर तक टिकने वाली कविताएं हैं। उनका रेणुका नमक संग्रह 1935 में आता है यह वही समय है जब गोदान आया था इसी के कुछ समय बाद बच्चन की मधुशाला आती है। 1946 में कुरुक्षेत्र आया इसके कुछ वर्ष पूर्व तार सप्तक आया था। दिनकर की कविता मतवाद से मुक्त है। वे कहते हैं ख्याति तो मुझे हुंकार से मिली लेकिन मेरा मन तो अभी भी रसवंती में ही रमता है। दो पुस्तकों के लिए दिनकर अमर रहेंगे संस्कृति के चार अध्याय और शुद्ध कविता की खोज। शुद्ध कविता की खोज में वे विद्यापति और बिहारी की कविता को श्रेष्ठ ठहराते है। उनका मानना था कि कविता में भाव ही मुख्य है उसमें किसी विचार और विचारधारा को थोपना ज़रूरी नहीं मानते। दिनकर इस रूप में एक विवेकवान आलोचक के रूप में हमारे सामने आते हैं। “प्रत्येक देश की नीति उसके राष्ट्रीय स्वरूप की परिचायक होती है। हमारे राजनेताओं में युधिष्ठिर जैसा चरित्र होना चाहिए, अर्जुन जैसा नहीं। हमें अशोक जैसे शासक को महत्व देना चाहिए।”
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख
देवता मिलेंगे गिट्टी तोड़ते हुए सड़कों पर
खेतों में , खलिहानों में।
संस्कृति के चार अध्याय का तीसरा अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है। दिनकर बहुत ही सावधानी से पढ़े जाने की अपेक्षा रखते हैं। छायावाद के दौर में दिनकर सहित लक्ष्मी नारायण सुधांशु, जनार्दन प्रसाद झा द्विज बड़े कवि थे। इनकी कविताओं पर ध्यान दिनकर के काव्य को पढ़ते हुए जाता है। दिनकर को पढ़ते हुए एक सावधानी की अपेक्षा होती है।
“पंत के सपनों को मैं द्विवेदी युगीन भाषा में लिखना चाहता हूँ” ऐसा दिनकर कहते हैं क्योंकि छायावादी कवियों की भाव अभिव्यंजना में अस्पष्टता बहुत है। शैली भाव की चादर नहीं है बल्कि उसकी चमड़ी है।
संचालन कार्य हिन्दी विभाग के शोध छात्र हिमांशु कर रहे थे।
सभा में प्रो. कृष्ण मोहन, डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, डॉ. विंध्याचल यादव, पीयूष आचार्य जी और प्रीतिश आचार्य जी राजेश्वरचार्य जी के पुत्र सहित विद्यार्थियों और शोधार्थियों की उपस्थिति रही।
प्रतिवेदन: कु रोशनी, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।
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