*अपनो में ही अन्तर.....!*

*अपनो में ही अन्तर.....!*
पिछली पीढ़ी और वर्तमान पीढ़ी में,
अंतर बस इतना सा है....!
एक बुझे मन से कहता है
जीवन भर की कमाई...अपनो पर...
मैंने खुश होकर...हरदम ही उड़ाई...
अब मेरे पास...देने को बचा क्या है..
हाथ पसारे डेहरी पर बैठा हूँ....!
चल रही नब्ज़ और  साॅंस है...
कहने के लिए...अभी जिन्दा हूँ.... 
लेकर अपनी पीड़ा....जाऊँ कहाँ...?
अपनी इस गहरी व्यथा को...
बैठ के स्थिर अब सुनाऊँ कहाँ...?
जकड़ा रहा जिस बंधन में जीवन भर
तोड़ के बंधन वह...अब जाऊँ कहाँ..
उधर...गुर्राती नवयुवकों की पीढ़ी...!
बात-बात में यह कह जाती ....
इस पीढ़ी ने हमारे लिए रचा क्या है..
इन बुड्ढ़ों ने....हमें दिया क्या है....?
बाँध ही रखा था...हमारा अंग-अंग...
देखा ही नहीं हमने...!
जीवन का कोई भी रंग....
सपना मुक्त गगन में उड़ने का....!
सपना ही रहा...इस जीवन में....
हर रंग दिखा है बदरंग....
यहीं क़ाबिले ग़ौर है प्यारे....!
नई पीढ़ी में विश्वास नहीं है...
ख़ुद अपने ही श्रम का...!
इंतजार नहीं है उनको,
ख़ुद के आने वाले कल का....
शिकार अलग से है वह....!
किसी न किसी भ्रम का....
अंदाज़ भी नहीं है उसको....!
अपने ही पराक्रम का....
पीढ़ियों का यह परिवर्तन प्यारे...!
देशकाल और वातावरण का है,
या फिर...हमारी नैतिक शिक्षा...
और...आचरण का है...
यह तो...विचार का विषय है...
पर....इतना तो सही है कि...!
झट से सब कुछ पा लेने की,
आतुरता ही....इसका कारण है...
कोई कह सकता है प्यारे....!
इसे....परिणाम परवरिश का,..
या फिर...गरिमाहीन जतन का...!
पर यह तो पक्का है प्यारे...
यही तो....मूल कारण है..…!
समाज में....सबके पतन का...
वैसे भी...यह तो मानी हुई बात...
जिसे चिंता नहीं....अपने ही....! परिवार-गाँव-देश-समाज का...
वह चिंता क्या खाक़ करेगा....?
इस जीवन में...अपने वतन का...
फिर मित्रों....आओ ढूँढ़ा जाए....
कोई ऐसी एक जंतर....!
जो मिटा सके....भगा सके...
इन दो पीढ़ी के वैचारिक अंतर...
वरना...आगे की राह कठिन है...
दिन-प्रतिदिन....लोगों का...!
मन होता जा रहा मलिन है....
काम नहीं कर पाएगा....!
कोई जादू टोना या मन्तर....
बढ़ता ही जाएगा...चौड़े से....
गाँव-देश और समाज में प्यारे
अपनों में ही अंतर.....!
अपनों में ही अंतर.....!

रचनाकार....
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ

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