*एक थे डॉ मुन्नू सिंह*

*एक थे डॉ मुन्नू सिंह*
       सहिजदपुर एक सात पुरवा का गाॅंव है।उसी में एक छोटा सा पुरवा ठकुरान है।उस पुरवा में ठाकुर लोहार और दलित रहते हैं। ठाकुर बहुमत में हैं इसलिए उस पुरवा नाम ठकुरान है।उसी ठकुरान में एक भरे पुरे मध्यम मगर सुसज्जित परिवार में इनका जन्म हुआ।इनके पिता गौरीशंकर जी किसान थे।मुन्नू सिंह कुशाग्र बुद्धि के धनी थे।हर कार्य बड़ी तन्मयता से करते थे।जिद्दी भी थे जो ठान लेते थे वो करके ही मानते थे। मैकेनिकल से लेकर कौन सा ऐसा काम था जो वह नहीं कर लेते थे।कोई भी मैकेनिकल काम जब बहुत अधिक खराब हो जाता था तभी वो किसी मिस्त्री के पास जाता था। वर्ना घर पर ही वो दुरुस्त कर लेते थे।चाहे साईकिल हो मोटर साईकिल हो,मोटर कार हो,टीबी हो ट्रांजिस्टर हो,सब अपने ही दुरुस्त कर लेते थे। होमियोपैथी की डिग्री लिए।और गाॅंव में अपने घर पर ही दुकान खोल लिए।और लग गये गाॅंव की सेवा में।उनकी दी हुई दवाई से लोग स्वस्थ होने लगे।और शीघ्र ही आस पास के गाॅंव वाले भी उनसे अपना इलाज करवाने लगे।वो इतने उदार थे कि गर्मी हो,जाड़ा हो, भयंकर बरसात हो,सूचना मिलते ही हर हाल में मरीज को स्वस्थ करने के लिए अपना स्वास्थ्य खतरे में डालकर पहुॅंच जाते थे।आधी रात हो चाहे चिलचिलाती धूप हो,सबको धता बताते हुए अपने मरीज को स्वस्थ करने के लिए पहुॅंच जाते थे।बड़ी तारीफ की बात उनमें ये थी कि मरीज को दवा देने के बाद पैसा लेने का इंतजार भी नहीं करते थे।दिया तो ले लिए। नहीं दिया तो चल दिए।और डाक्टर की तरह वहीं जमे नहीं रहते थे।जहाॅं बड़े बड़े डाक्टर बिना शुल्क लिए नाड़ी तक नहीं पकड़ते। वहीं डॉ मुन्नू सिंह बिना किसी भेद भाव के सबका इलाज उधारी में करते थे।जो दे दिया वो लिए।जो नहीं दिया उससे कभी मांगे भी नहीं।खास बात यह रही कि न देने वाले का इलाज भी कभी बंद नहीं किए।उसका भी इलाज अनवरत करते रहे।शिक्षक भी बन गये।वहाॅं भी वे पूरी इमानदारी से अपना काम करते थे।संगीत की तरफ मन घूमा तो उसमें भी महारत हासिल किये। हार्मोनियम बजाना सीखें।गाना सीखें।ढोलक हार्मोनियम आदि खरीदे।किसी के भी यहाॅं गीत संगीत या रामचरितमानस का आयोजन हो और डॉ मन्नू सिंह न पहुॅंचें ये हो ही नहीं सकता।हर काम छोड़कर भले दस मिनट के लिए पहुॅंचें मगर पहुॅंचते अवश्य थे।घर वाले लाख मना करते रहें।मगर जो वो तय कर लेते थे तो करते अवश्य थे।अजीब की जीवटता थी।थकान जैसे उनसे डरती थी।आती ही नहीं थी। हमेशा तत्पर रहते थे।सब आश्चर्य में थे कि यह व्यक्ति आराम कब करता है।यदि कोई पूॅंछता था तो मुस्कुरा कर टाल देते थे।इतनी व्यस्त जिंदगी के बाद भी डाॅ मुन्नू सिंह घर समाज में सामंजस्य बनाकर रखे हुए थे।उनका जीवन किसी अजूबे से कम नहीं था।गजब इस्टेमिना था।जो कभी हारता ही नहीं था। लेकिन मौत से हार गये। अल्पायु में ही घर और पुर पवस्त को वे अनाथ करके विदा हो लिए।जिस दिन उन्होंने अंतिम सांस ली।पूरा पवस्त महीनों रोया।धरती अम्बर दशों दिशायें रोईं। अंतिम विदाई देने के लिए जन सैलाब टूट पड़ा।जो जहाॅं था जैसे था उनके अंतिम दर्शन के लिए बदहवास हो उनके निवास की तरफ दौड़ पड़ा।क्या बालक क्या वृद्ध,क्या महिला क्या परुष सब बदहवास दौड़े आये।दृश्य ऐसा था जैसे राम वन गमन का था।लोगों के मुख से बस एक ही बात निकलती थी, हम सबका मसीहा हम सबको अनाथ करके चला गया।आज भी लोग उनको याद करके रो लेते हैं।उनकी याद में दो आंसू बरबस ही टपक पड़ते हैं।ऐसे थे हमारे हम सबके प्रिय डॉ मुन्नू सिंह।जो आज भी हम सबके हृदय में जीवित हैं।तन भले नहीं है।पर वे सदियों तक हम सबके दिल में जीवित रहेंगे।अमर रहेंगे।आज लगभग एक वर्ष उनको गोलोक गमन किये हो गया।मगर लगता ही नहीं कि वो हम सबसे दूर हैं।ऐसा लगता है जैसे वो हर जगह विद्यमान हैं। लोग डाक्टर को भगवान कहते हैं।तो सच में ही डाॅ मुन्नू सिंह भगवान ही थे।जो अपनी बहुआयामी लीला हम सबको दिखाकर चले गये।वैसे ही पुर पवस्त को अनाथ कर गये जैसे भगवान श्रीराम जी अयोध्या को अनाथ कर गये थे। डॉ मुन्नू सिंह साकार भगवान थे।ऐसे भगवान को सत सत बार नमन।
पं.जमदग्निपुरी

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