*विभाजन की विभत्सता*

*विभाजन की विभत्सता*
     भारत कई वर्षों के बाद आजाद होने जा रहा था।बड़ी कुर्बानी,बडा़ बलिदान देने के बाद यह सुअवसर हम भारतियों को मिलने जा रहा था।अभी हम आजादी का मजा चख भी नहीं पाये थे कि सत्तालोलुपों ने साठ गांठ कर लाखों क़ुर्बानियों को धता बताते हुए।आज के दिन यानी १४ अगस्त १९४७ को भारत के दो टुकड़े कर दिए।एक देश धर्म के आधार पर बना पाकिस्तान।
      बॅटवारे के बाद बहुत कुछ उलट पलट गया।उधर से हिन्दू सिख बौद्ध काफी संख्या में अपना सबकुछ छोड़कर इधर आये।इधर से काफी मुसलमान उधर गये।बड़ी तारीफ की बात यह रही कि उधर से जितने आये थे,उनकी सम्पत्ति पर मुसलमान कब्जा कर लिए।मगर इधर से गये मुसलमानों की सम्पत्ति यहाॅं की तत्कालीन सरकार ने वक्फ बोर्ड को सौंप दी।यह सब तो चलो ठीक रहा। ठीक जो नहीं रहा वह देश का विभाजन रहा।इधर वाले दिल पर भारी सा पत्थर रखके अपने छद्मवेशी नेताओं का कहा मान लिए। खंडित भारत को मन मसोस कर स्वीकार कर लिए।और लगे मस्ती में झूमने गाने।कि कल का सूर्य हम सबकी आजादी का होगा।घर घर सजावट होने लगी।गली चौराहे सब तिरंगे से सज गये,जिधर देखो उधर तिरंगा ही तिरंगा दिख रहा था।अभी हम खुशियों के सूरज का इंतजार कर ही रहे थे।लाहौर से अमृतसर एक ट्रेन आती है। जिसमें निरपराध मासूमों की महिलाओं की और पुरुषों क्षत विक्षत लाशें आई थी।लाशों को देगने से ही दरिंदगी और निर्दयता साफ दिख रही थी।इतना भयावह मंजर या तो जलिया वाला बाग का था।या बावन इमली का था।या अगम कुॅंआ हो या फिर लाहौर से आई इस ट्रेन का था।जो भी देखता था,बरबस ही चीख पड़ता था या सन्न हो जाता था।जरा सोचिए  जब हम उस विभत्स चित्र को देखकर सिहर जाते हैं।तो उस समय उन लोगों की क्या हालत हुई  होगी। जहाॅं लोग लाशों  के ढेर में  अपनों  को ढूॅंढ़ रहे थे।उन लाशों का गुनाह इतना भर था कि वो हिन्दू सिख और बौद्ध थीं।जिस तरह से आज हम उस चित्र को देखकर आक्रोशित होते हैं।तब भी लोग हुए।सब पर खून सवार हो गया।दिल्ली में विजयी विश्व तिरंगा प्यारा गाया जा रहा था।और अमृतसर में कत्लेआम मचा हुआ था।सब आजादी मिली है,भूल गये और चुन चुनकर मुसलमानों का कत्ल कर रहे थे।एक तरफ दिल्ली में कांग्रेसी जश्न मना रहे थे।दूसरी तरफ हाहाकार मचा हुआ था।उतने कत्ल शायद पूरी आजादी की लड़ाई में नहीं हुए होंगे,जितना की १४-१५ अगस्त को हुए थे।इसके बाद भी दोनों टुकड़े काफी दिन तक अशांत रहे।
      मुझे तो बड़ा अचरज इस बात का है कि एक तरफ देश टूटा।दूसरी तरफ लाखों कत्ल हुए।इसके बावजूद भी दिल्ली उत्सव कैसे मनाई।क्या तत्कालीन सरकार असंवेदनशील थी।यदि गौर से देखा जाय तो तत्कालीन सरकार असंवेदनशील ही नहीं निर्दयी भी थी।वह स्थिति सम्हालने की बजाय जश्न मनाने में लिप्त रही।इससे साफ जाहिर होता है कि तत्कालीन सरकार सिर्फ और सिर्फ सत्ता की भूखी थी। इसीलिए लाखों मौतों पर मातम मनाने के बजाय जश्न मना रही थी। लाखों लाशों पर नर्तन कर रही थी।उसे जनता से कुछ लेना देना नहीं था।आज उन्हीं के वंशज एक जान के लिए हजारों को मरवा दिए।कई पर्व बंद करवा दिए।अब सवाल ये उठता है कि क्या एक लाख पर एक भारी है।हमारे जितने नेता हैं क्या झूठ और बस झूठ बोलते हैं।क्या ए सब जनता को सिर्फ मूर्ख बनाते हैं।नेता लोग कहते हैं हम जनता के लिए जीते हैं।यदि जनता के लिए जीते तो लाखों लाशों पर नर्तन नहीं करते।शोक मनाते।वहाॅं खड़े होते।जहाॅं लोग अपनों के लिए बिलख रहे थे।वो बिलख रहे थे,जिनके लोग देश के लिए बलिदान हुए थे। उन्हें सांत्वना देते।मगर ऐसा नहीं कि।उत्सव मनाते ही नहीं।उल्टे उसे राष्ट्रीय पर्व बनाकर हम सबको भी नचवा रहे हैं।१४ और १५ अगस्त तो हम भारतवासियों के लिए काला दिन होना चाहिए था।मगर हो सब उलट रहा है।हम उन्हें श्रद्धांजलि नहीं देते जिनके दम पर जिनके बलिदान हम आज आजादी का जश्न मना रहे हैं।
पं.जमदग्निपुरी

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