मुक्तककार गिरिश कुमार श्रीवास्तव गिरीश

मुक्तककार गिरिश कुमार श्रीवास्तव गिरीश 
हृदयगति न रुक जाये है बहुत सहमा हुआ डर से।।
हमेशा बच करके रहना अब नये भारत के तेवर से। 
हंसी आती है गीदड़ धमकियाँ देता है शेरों को-
लड़ेगा क्या वो भूखा पेट रोटी के लिए तरसे।।


ग़ज़ब का रूप आकर्षण नज़र को खींच लेते हैं।। 
चमक जाती हैं आंखें, आंखों को हम मींच लेते हैं।। 
मैं हतप्रभ रह गया आंखें खुली तो मैं अकेला था-
आचानक अपनी बांहों में सपन में भींच लेते हैं।।


नहीं अपमान करता, मैं सभी को मान देता हूॅ। 
नीयत अच्छी, बुरी कैसी भी हो पहचान लेता हूॅ।
विवश हूँ क्या करूँ बस में नहीं हालात हैं मेरे-
बड़ा होते हुए भी खुद को छोटा मान लेता हूँ।।

परिश्रम करते हैं प्रति पल जो,वो उत्कर्ष करते हैं।। 
 लगन से अपनी साहस से शिखर स्पर्श करते हैं।। 
हम अपने आज को जाया नही होने कभी देगें-
हो अपना कल सुनहरा इस लिए संघर्ष करते हैं।।


पुतली टंगी हुयी है गिरती नहीं पलक।। 
मिल जाती काश मुझको महबूब की झलक।। 
आयेगें लौट कर अवध में आखों के तारे-
शक आप कीजिये मुझे बिल्कुल नहीं है शक।।


सुकूँ और चैन से जीना नहीं तुम सीख पाओगे।। 
निकल जायेगा दम घुट कर नहीं तुम चीख़ पाओगे।। 
सुधर जाओ अभी भी वक्त है पछताओगे वर्ना-
कटोरा लेके निकलोगे नहीं तुम भीख पाओगे।।


हृदय में वेदना संवेदना इन्सान कहते हैं।। 
मुसीबत में निभाये साथ जो भगवान् कहते हैं।। 
ये सारे गुण समाहित हैं सनातन की ऋचाओं में-
 यही भारत है भारत को ही हिन्दुस्तान कहते हैं।।

उलझनें ऐसी डाल देते हैं।। 
बात हंस कर के टाल देते हैं।। 
उनको अपना कहें या बेगाना-
हाल लेते न हाल देते हैं।।

बच्चों की तरह आप मचलने लगे हैं क्यूँ।। 
गैरों की खुशी देख कर जलने लगे हैं क्यूँ।। 
सच को छुपा सकते नहीं हरगिज़ नकाब से-
चेहरे पे चेहरा आप बदलने लगे हैं क्यूँ।।

हार लिखता हूँ जीत लिखता हूँ।। 
मै तो दुनियाँ की रीति लिखता हूँ।। 
भावनाओं को ढ़ाल शब्दों में-
छन्द लिखता हूँ गीत लिखता हूँ।।

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